Next Page (गुलजार Best Gazals)

21.      बाँझ

कोई चिंगारी नहीं जलती कहीँ ठंडे बदन में
साँसे के टूटे हुए धागे लटकते है गले से
बुलबुले पानी के अटके हुए बफार्ब लहू मेँ
नींद पथराई हुई आँखों पे बस रखी हुई है
रात बेहिस है,मेरे पहलु में लकड़ी सी पड़ी है
कोई चिंगारी नहीं जलती कहीं ठंडे बदन में
बाँझ होगी वो कोई,जिसने मुझे जन्म दिया है।।

22.        सीलन

बस एक ही सुर में,एक ही लय में सुबह से देख देख कैसे बरस रहा है उदास पानी,
फुहार के मलमली दुपट्टे से उड़ रहे है,
तमाम मौसम टपक रहा है।
पलक पलक रिस रही है ये कायनात सारी
हर एक शे भी भीगकर देख कैसी बोझल सी हो गयी है।
दिमाग की गीली गीली सोचों से भीगी भीगी उदास यादें टपक रही है,
थके थके से बदन में बस धीरे धीरे सांसों का गर्म लोबान जल रहा है।

23.         नज़्म

नज़्म उलझी हुई है सीने में
मिसरे अटके हुए हैं होटों पर
लफ्ज कागज पे बैठते ही नही
उड़ते फिरते हैं तितलियों की तरह
कब से बैठा हुआ हूँ मैं जानम
सादा कागज पे लिखके नाम तेरा
बस तेरा नाम ही मुकम्मल है
इससे बेहतर भी नज्म क्या होगी।।

24.            रूह देखी है

रूह देखी है, कभी रूह को महसूस किया है?
जागते जीते हुए दूधिया कोहरे से लिपटकर
साँस लेते हुए इस कोहरे को महसूस किया है।
या शिकारे में किसी झील पे जब रात बसर हो,
और पानी के झपाकों से बजा करती हो टलियां
सुबकियां लेती हवाओ के कभी बेन सुने है?
चौदवीं रात के बफराब से इक चाँद को जब
ढेर से साय पकड़ने के लिए भागते है।
तुमने साहिल पे खड़े गिरजे की दीवार से लगकर
अपनी गहनाती हुई कोख को महसूस किया है?
जिस्म सौ बार जले तब भी वही मिट्टी का ढेला
रूह इक बार जलेगी तो वो कुंदन होगी,
रुह देखी है,कभी रूह को महसूस किया है?

25.      लोरी

सुनहरी कूजें जब उड़ते-उडते उफ़क की टहनी पे बैठ जायँ,
तुम्हारे कंधों पे झुकाके जब शाम बोसा ले ले
चिराग खोलें जब अपनी मद्धम उदास आंखे
तुम अपने चेहरे पे खिंच लेना हया का आँचल
मैं होले होले मना के आंचल उतार लूँगा
तुम्हारे होटों के ठंडे ठंडे गुलाब आँखों पे रखके मैं,
रात को सुनाऊंगा फिर उसी नीद नई कहानी
वो नींद जो जागते मिली थी तुम्हारी आगोश के सुकूँ में!!

26.      एक पता

यहाँ से जरा आगे चलकर फ़टी सी दरी पर पुराना सा एक आदमी सा मिलेगा।
अधूरा सा चेहरा है,ओधा पड़ा, एक कांसा सम्भाले,
भिकारी है पर मांगता कुछ नहीं।
वहां से अगर दाएं मुड जाओ तो दुकानों की लंबी कतारें मिलेंगी महाजिर हैं सारे।
वो लकड़ी के खोखे, दुकाने है उनकी
दुंकानों के पीछे ही इंचों मेँ खिचे हुए उनके घर है।
ये बाहर से आय थे,मस्जिद में ही आके बसने लगे थे
वहां से निकाले गए हैं
की घर है खुदा का, खुदा के यहां इनती जगह कहां है।
वरना वो सारे जहाँ को पनाह देनी पड़ जाय उसको!

तो हाँ वो पता मैं बताने लगा था
उसी रास्ते पर, दुकानों से आगे,
वो मस्जिद मिलेगी
वो इब्ने सना उल्लाह सैय्यद वली खां की मस्जिद
वहाँ से जरा बाएं मुडते ही नो दस कदम पर
बड़ा ढेर एक कूड़े करकट का तुमको नजर आयेगा।
वो मुडने से पहले ही तुम सुंग लोगे
वो घटता तो है, और हर रोज बढ़ता भी है।
अब उस इलाके मेँ
पहचान का इक निशाँ बन गया है।
मगर उस जगह तुमको रुकने की कोई जरूरत नहीं
जरा देर सीधे ही चलते चलो तुम
किताबों का बाजार आयेगा आगे
वहीं एक जग आलूद झज्जे के नीचे से गुजरोगे जब तुम
अंधेरी सी दाईं तरफ एक गली सी मिलेगी
गली भी नहीं
इसलिए की वहां कुछ गरीबों ने घर से बनाये हुए है।
वो घर भी नहीं,इसलिए की वहां दीवार या कोई खिड़की नहीँ
कोई पर्दा नहीं है।
गुजरते हुए यूँ लगे तुमको शायद
किसी रास्ते नॉवेल का,
नंगा सा एक बाब पढ़ते हुए चल रहे हो।
सम्भल कर निकलना,फिसलने का डर है
की खाते पकाते वहीं पर है सारे
मगर उससे बढ़कर
ये डर है कहीं तुम
किसी जिन्दा मुर्दे पे पांव ना रख दो
की इक मरता है और दो पैदा होते है रोज उस गली में
गली से निकलते ही आँखों पे जब एक छीट पड़ेगी
चमकती हुई धुप का
तो जरा देर कुछ भी दिखाई ना देगा
जरा आंखे मलकर
अगर पार देखों
तो इक चोक होगा
वहां से बहुत पास है वो सड़क भी
की जिस पड़ तुम्हें सारे पी एम के जी एम् के बंगलें मिलेंगे
उसी शाहराह पर,
बहुत आगे जाकर
हवाई जहाजों का अड्डा नया बन रहा है
तुम्हें जिससे मिलना था लेकिन?
नहीं!वो नहीं जानता मैं!
मैं समझा की अपने ही घर का पता पूछने तुम यहां आ गए हो।

27.     शाखें

था तो सर सब्ज,वो पौधा तो हरा था
ऒर तन्दरुस्त भी शांखे भी,
मगर उसको कोई कद ना निकल पाया था
गई बहुत साल वो खिंचा भी गया
मेरे माली की शिकायत थी
कभी फूल ना आय उस पर।
ओर कई साल के बाद
मेरे माली ने उसे खोद निकाला है जमीं से
सारे बगीचे में फैली हुई निकली है जड़ें
बरसों पालें हुए रिश्ते की तरह
जिसके शाख़ें तो हरी रहती है,लेकिन
उस पर,फूल फल आते नहीं।

28.     काँच के ख़्वाब

देखो आहिस्ता चलों, और भी आहिस्ता जरा
देखना,सोच समझकर जरा पांव रखना
जोर से बज न उठे पैरों की आवाज कहीँ
कांच के ख्वाब है बिखरे हुए तन्हाई में
ख्वाब टूटे ने कोई,जाग न जाय देखो
जाग जायेगा कोई ख्वाब तो मर जायेगा।।

29.          तलाश

जी चाहे की पत्थर मारके सूरज टुकड़े टुकड़े कर दूँ
सोर फलक पर बिखरा दूँ इस कांच के टुकड़े
जी चाहे कि
लम्बी एक कमंद बनाकर
दूर उफ़क पर हुक लगाऊँ
खिंच के चादर चिर दूँ सर से
झाँक के देखूं पीछे क्या है,
शायद कोई और फलक हो।।

30.      थकावट

सितारे लटके हुए है तांगों दे आसमां पर
चमकती चिंगारियां सी चकरा रही आँखों की पुतलियों में
नजर से चिपक हुए हैं कुछ चिकने चिकने से रौशनी की धब्ब,
जो पलकें मूंदूँ तो चुभने लगती है रौशनी की सफेद किरचें,
मुझे मेरे मखमली अंधरों की गोद में दाल दो उठाकर
चटकती आँखों पे धुप अंधरों ले फाय रख दो
ये रौशनी का उबलता लावा न अँधा कर दे।।

31.       लौ

मेरी गोदी में पड़ा, रात की तन्हाई में अक्सर
जिस्म जलता है तेरे ज़िस्म को  छूने के लिए
हाथ उठते है तेरी लो को पकड़ने के लिए
सांसे खिंच खिंचके चटक जाती है तांगों की तरह
हॉप जाती है बिलखती हुई बाँहों की तलाश
और हर बार यही सोचा है तन्हाई में मैने
अपनी गोदी से उठाकर यह तेरी गोदी में रख दूँ
रूह की आग में ये आग भी शामिल कर दूँ।

32.   जनाज़ा

सफेद बिस्तर पे एक मय्यत पड़ी हुई है
जिसे की दफनाना भूलकर लोग चल दिए हैं
की जैसे मेरा दफन कफ़न उनका हिस्सा न था
वो लोग लौटें
वो देखें,पहचानें
दफ्न कर दें तो साँस आये।

33.   उम्मीद

धुप की धूल को जब झाड़ के मजदूर परिंदे
आशियानों की तरफ लौटके आते है जमीं पर
और पलकों की तरह शाम उतरती है फलक से
रात आती है बुझा देती है सब रंगों के चहरे
अपने दरवाजे पे इक लो का लगा देता हूँ टिका
तुम अगर लोट के आओ
तो ये दरवाजा न भूलो।।

34.      शरारत

आओ तुमको उठा लूँ कंधों पर
तुम उचककर शरीर होटों से
चुम लेना ये चाँद का माथा
आज की रात देखा ना तुमने
कैसे झुक झुकाके कोहनियों के बल
चाँद इतना करीब आया है ।।

35.    पतझड़

जब जब पतझड़ में  पेड़ों से पिले पिले पत्ते
मेरे लोन में आकर गिरते है
रात को छत पर जाके मैं आकाश को तकता रहता हूँ
लगता है कमजोर सा पिला चाँद भी शायद
पीपल के सूखे पत्ते सा
लहराता लहराता मेरे लॉन में आकर उतरेगा।

36.       त्रिवेणी

अंधी आँखों पे तुमने अच्छा किया
हाथ रखके जो रौशनी दे दी
तेरे हाथों में खुल गये दो जहाँ
इतने लोगों में कह दो आँखों को
इतना ऊँचा न ऐसे बोला करें
लोग मेरा नाम जान जाते है।।

37.        एक और स्केच

गोला फुला हुआ सूरज का गुबारा थककर
एक नोकिली पहाड़ी पे यूँ जाके टिका है
जैसे उंगली पे मदारी ने उठा रखा है गोला
फूंक से ठेलों को पानी में उतर जायगा नीचे
भक से फट जायेगा फूल हुआ सूरज का गुब्बरा
झन से बुझा जायेगा इक और दाहकता हुआ दिन।।

38.      याद
यूँ भी कभी हुआ है,अकेली सी शाम में
धुंधले से इक चिराग के चेहरे के पास पास
सरगोशियों सी ढूंढते है जब तुम्हारे होंठ
आँखों में यूं बिलख्ते मचलते है एक बूंद
जैसे यतीम होटों पे मचले तुम्हारा नाम।

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