Best Gazals of Shakil Azmi

 1.ख़ुद को इतना भी मत बचाया कर
बारिशें तो भीग जाया कर
काम ले कुछ हसीन होंटों से
बातों-बातों में मुस्कुराया कर
 दर्द हीरा है दर्द मोती है
 दर्द आँखों से मत बहाया कर
 चाँद लाकर कोई नहीं देगा
 अपने चेह्‌रे से जगमगाया कर
 धूप मायूस लौट जाती है
 छत पे कपड़े सुखाने आया कर
 कोई तस्वीर कोई अफ़साना
कुछ न कुछ रोज़ ही बनाया कर
 कौन कहता है दिल मिलाने को
 कम से कम हाथ तो मिलाया कर

2.
अपनी मन्ज़िल पे पहुँचना भी, खड़े रहना भी
 कितना मुश्किल है बड़े होके बड़े रहना भी
मसलेहत से भरी दुनिया में ये आसान नहीं
 ज़िद भी कर लेना उसी ज़िद पे अड़े रहना भी
 तेज़ आँधी में इसे मोजज़ा\ समझा जाए
 इन दरख़्तों का ज़मीनों में गड़े रहना भी
 दिल हो नाराज़ तो ख़ुशियों पे असर पड़ता है
 हर घड़ी ठीक नहीं ख़ुद से लड़े रहना भी
 फ़ास्ला करके कभी शह्‌र के हँगामों से
 अच्छा लगता है यूँ ही घर में पड़े रहना भी
काश मैं कोई नगीना नहीं पत्थर होता
 क़ैद जैसा है अँगूठी में जड़े रहना भी

3.
परों को खोल ज़माना उड़ान देखता है
ज़मीं पे बैठके क्या आसमान देखता है
जो चल रहा है निगाहों में मन्ज़िलें लेकर
 वो धूप में भी कहाँ साएबान देखता है
 खंडर में किसको महल की तलाश ले आई
ये कौन रुक के मिरी आन-बान देखता है
यही वो शह्‌र जो मेरे लबों से बोलता था
 यही वो शह्‌र जो मेरी ज़बान देखता है
मिला है हुस्न तो इस हुस्न की हिफ़ाज़त कर
 संभल के चल तुझे सारा जहान देखता है
 कनीज़ हो कोई या कोई शाहज़ादी हो
 जो इश्क़ करता है कब ख़ानदान देखता है
घटाएँ उठती हैं बरसात होने लगती है
 जब आँख भरके फ़लक को किसान देखता है
मैं जब मकान के बाहर क़दम निकालता हूँ
 अजब निगाह से मुझको मकान देखता है

4.
मर के मिट्टी में मिलूँगा, खाद हो जाऊँगा मैं
फिर खिलूँगा शाख पर आबाद हो जाऊँगा मैं
 तेरे सीने में उतर आऊँगा चुपके से कभी
फिर जुदा होकर तिरी फ़रियाद हो जाऊँगा मैं
बार-बार आऊँगा मैं तेरी नज़र के सामने
और फिर इक रोज़ तेरी याद हो जाऊँगा मैं
अपनी ज़ुल्फ़ों को हवा के सामने मत खोलना
वरना ख़ुश्बू की तरह आज़ाद हो जाऊँगा मैं
 तेरे जाने से खंडर हो जाएगा दिल का नगर
छोड़कर मत जा मुझे बरबाद हो जाऊँगा मैं

5.
हर घड़ी चश्मे-ख़रीदार में रहने के लिए
कुछ हुनर चाहिए बाज़ार में रहने के लिए
 ऐसी मजबूरी नहीं है कि चलूँ पैदल मैं
 ख़ुद को गरमाता हूँ रफ़्तार में रहने के लिए
 मैंने देखा है जो मर्दों की तरह रहते थे
 मस्ख़रे बन गए दरबार में रहने के लिए
 अब तो बदनामी से शोह्‌रत का वो रिश्ता है,
 कि लोग नंगे हो जाते हैं अख़बार में रहने के लिए
जीतना सिर्फ़ इलेक्शन ही नहीं काफ़ी है
 जंग इक और है सरकार में रहने के लिए
 शाख़े-गुल छोड़ के क्या जाने हमें क्या
 सूझी आ गये साय-ए-तलवार में रहने के लिए
 थक गया मैं तो मिरे साथ सितारे लेकर रात आई
 दरो-दीवार में रहने के लिए

6.
कहीं खोया ख़ुदा हमने कहीं दुनिया गंवाई है
बड़े शह्‌रों में रहने की बड़ी क़ीमत चुकाई है
 वो दोनों साथ चलना चाहते थे दूर तक
 लेकिन मुहब्बत करने वालों के मुक़द्दर में जुदाई है
 हमें देखो कि मर कर किस तरह ज़िन्दा बचे हैं
 हम जहाँ तन्हा हुए थे हम वहीं महफिल सजाई है
 न लफ़्ज़ों में न तस्वीरों मे देखी थी कभी हमने
 गली-कूचों ने चलते-फिरते जो सूरत दिखाई है
 कभी तो नूर फैलेगा तिरे काग़ज़ से दुनिया में
 लिखे जा जब तलक तेरे क़लम में रोशनाई है

7.
तुझसे बिछड़ के तेरी वफ़ा के बग़ैर भी
 मैं साँस ले रहा हूँ हवा के बग़ैर भी
 मैं जी गया जो तेरे बिना तो अजब है
 क्या ज़िन्दा हैं कितने लोग ख़ुदा के बग़ैर भी
दस्ते-तलब1 उठाया मगर कुछ नहीं
कहा माँगा है मैंने तुझको दुआ के बग़ैर भी
 ऐसा भी कितनी बार हुआ इन्तेज़ार में
दरवाज़ा खुल गया है सदा के बगै़र भी
 मैं रो रहा था और कोई रन्ज भी न था
 बरसात हो रही थी घटा के बग़ैर भी
 कुछ लोग जुर्म करके भी आज़ाद हैं ‘शकील’
 हमको सज़ा मिली है ख़ता के बग़ैर भी

8
.प्यार मिल जाता है, चाहत नहीं मिलती सबको
 दोस्ती में भी मुहब्बत नहीं मिलती सबको
 सैकड़ों जाते हैं दरवाज़े पे दस्तक देकर
 दिल में आने की इजाज़त नहीं मिलती सबको
सिर्फ़ मरने से अदा होती नहीं रस्मे-वफ़ा
 मौत के बाद भी जन्नत नहीं मिलती सबको
चन्द हीरों को ही मिलता है चमकने का नसीब
 काम सब करते हैं शोह्‌रत नहीं मिलती सबको
 आइने सबने दुकानों में सजा रक्खे हैं
 आइनों के लिए सूरत नहीं मिलती सबको
 देखने वाले बहुत कम हैं पसे-मन्ज़र तक
 आँख मिल जाती है हैरत नहीं मिलती सबको
कोशिशें करके भी नाकाम कई होते हैं
एक जैसी यहाँ क़िस्मत नहीं मिलती सबको
दिल को दिल्ली की तरह जीतना पड़ता है ‘शकील’
ये हुकूमत है हुकूमत नहीं मिलती सबको

9.
ख़ुद को दुख देना, उजड़ना मिरी मजबूरी है
 ज़िन्दगी तुझसे बिछड़ना मिरी मजबूरी है
टूटते रिश्ते की पोशाक का धागा हूँ मैं
अब बुनाई से उधड़ना मिरी मजबूरी है
 मैं अकेला कई लोगों से नहीं लड़ सकता
इसलिए ख़ुद से झगड़ना मिरी मजबूरी है
 वरना मर जाएगा बच्चा ही मिरे अन्दर
 का तितलियाँ रोज़ पकड़ना मिरी मजबूरी है
 कहाँ मिट्टी का दिया और कहाँ तेज़ हवा
 जलते रहना है तो लड़ना मिरी मजबूरी है
रास्तों से भी तअल्लुक़ है मिरा घर जैसा
साथ वालों से पिछड़ना मिरी मजबूरी है
 मेरा साया ही मिरे पौधों का दुश्मन ठह्‌रा
अपनी मिट्टी से उखड़ना मिरी मजबूरी है
 मैं बना ही था किसी रोज़ बिगड़ने के लिए
 सो किसी रोज़ बिगड़ना मिरी मजबूरी है
 मेरा साया ही मिरे पौधों का दुश्मन ठह्‌रा
 अपनी मिट्टी से उखड़ना मिरी मजबूरी है
मैं बना ही था किसी रोज़ बिगड़ने के लिए
 सो किसी रोज़ बिगड़ना मिरी मजबूरी है

10
छत दुआ देगी किसी के लिए ज़ीना बन जा
 डूबता देख किसी को तो सफ़ीना बन जा
रूह तो पहले से ही पाक मिली है तुझको
दिल भी कर साफ़ ज़रा और मदीना बन जा
 ज़िन्दगी देती नहीं सबको सुनहरे मौक़े
 तुझको अँगूठी मिली है तो नगीना बन जा
शौक़ ख़ुश्बू में नहाने का बहुत है जो तुझे
आ मिरे जिस्म से मिल मेरा पसीना बन जा
 आ किसी रोज़ मिरे दर्द को बादल करने
 और मिरी आँखों में बारिश का महीना बन जा

11.
पलट के देखा तो वो था न उसका साया था
 किसी ने मुझको बहुत दूर से बुलाया था
 यही फ़लक है कि जिस पर
कभी हमारे लिये तमाम रात कोई चाँद जगमगाया था
 फिर उसके बाद मैं तनहा रहा, उदास रहा
ज़रा सा मुझको किसी का ख़याल आया था
 उसी को सोच के रोई हैं बारहा आँखें
उसी को देख के इक बार मुस्कुराया था
ये ग़म निकलता नहीं मेरे जानो-दिल से
 कभी जिसे मैं अपना समझता था वो पराया था
 भरम भी रख न सका मेरी सादगी का वो मैं
जान-बूझ के जिससे फ़रेब खाया था
मिले थे घर के दरीचे भी साज़िशों में ‘शकील’
 हवा ने मेरे चरागों को जब बुझाया था ।

11.
‌मेरी बुनियाद को तामीर से पहचाना जाय
मुझको उजलत नहीं ताख़ीर से पहचाना जाय
मैं कई शक्ल में रहता हूँ बदन पर अपने
मेरा चेहरा मिरी तहरीर से पहचाना जाय
कोई समझे मिरी ख़ामोश निगाहों की सदा
 दर्द मेरा मिरी तस्वीर से पहचाना जाय
 आँख का देखा हुआ झूट भी हो सकता है
 ख़्वाब को ख़्वाब की ताबीर से पहचाना जाय
 मैनें पानी के लिए रेत उड़ाई है बहुत
 मेरी तक़दीर को तदबीर से पहचाना जाय
 मेरे काँधे से उतारे न कोई मेरी सलीब
जुर्म मेरा मिरी ताज़ीर से पहचाना जाय|
 इस अँधेरे में ये झनकार है शम्ओं की तरह
 यानी मुझको मिरी ज़नजीर से पहचाना
 जायमेरा सब कुछ मिरे माज़ी के हवाले से है
 मेरे मंगल को मिरे पीर से पहचाना जाय

12.
धुआँ धुआँ है फ़ज़ा, रौशनी बहुत कम है
सभी से प्यार करो ज़िन्दगी बहुत कम है
मुक़ाम जिसका फ़रिश्तों से भी ज़ियादा था
हमारी ज़ात में वो आदमी बहुत कम है
 हमारे गाँव में पत्थर भी रोया करते थे
 यहाँ तो फूल में भी ताज़गी बहुत कम है
 जहाँ है प्यास वहाँ सब गिलास ख़ाली हैं
जहाँ नदी है वहाँ तिश्नगी बहुत कम है
 ये मौसमों का नगर है यहाँ के लोगों में
हवस ज़ियादा है और आशिक़ी बहुत कम है
तुम आसमान पे जाना तो चाँद से कहना
 जहाँ पे हम हैं वहाँ चाँदनी बहुत कम है
 बरत रहा हूँ मैं लफ़्जों को इख़्तिसार के साथ
 ज़ियादा लिखना है और डायरी बहुत कम है


13.
‌चाहा, मगर गले से लगाया न जा सका
 इतना वो गिर गया कि उठाया न जा सका
 कहते हैं एक बार जिसे बद दुआ लगी
उसको किसी दवा से बचाया न जा सका
 कोशिश तो उसने की थी बहुत तोड़ने के बाद
 लेकिन मुझे दुबारा बनाया न जा सका
 जो रेत पर लिखे थे वो लहरों में खो गए
 पत्थर पे मैं लिखा था मिटाया न जा सका
मन्ज़र पे मुझको आने में कुछ देर तो लगी
लेकिन जब आ गया तो हटाया न जा सका
होंटों पे आ न पाया तो आँखों में नम हुआ
 मैं इश्क़ था किसी से छुपाया न जा सका
मैं जल गया तो राख नहीं कीमिया हुआ
मुझको किसी नदी में बहाया न जा सका

14.
रेत का घर हूँ, बिखरने से बचा ले मुझको
 यूँ न कर तेज़ हवाओं के हवाले मुझको
 इस तरह रूठ के मत जा मिरे सूरज मुझसे
कौन सर्दी में ओढ़ाएगा दुशाले मुझको
 चल पडूँगा तो बहुत दूर निकल जाऊँगा
वक़्त ठह्रा है अभी आ के मना ले मुझको
 शोर इतना भी नहीं है कि तुझे सुन न सकूँ
 दे के आवाज़ मिरे यार बुला ले मुझको
गर बिछड़ना ही मुक़द्दर है तो इससे पहले
 अपनी पलकों पे ज़रा देर सजा ले मुझको
मेरे ऐबों पे ज़रा देर को पर्दा रख दे
मैं बुरा हूँ तो भलाई से निभा ले मुझको

15.
चाँद में ढलने, सितारों में निकलने के लिए
 मैं तो सूरज हूँ बुझूँगा भी तो जलने के लिए
 मन्ज़िलों! तुम ही कुछ आगे की तरफ़ बढ़ जाओ
रास्ता कम है मिरे पाँव को चलने के लिए
ज़िन्दगी अपने सवारों को गिराती जब है
 एक मौक़ा भी नहीं देती संभलने के लिए|
 मैं वो मौसम जो अभी ठीक से छाया भी नहीं
साज़िशें होने लगीं मुझको बदलने के लिए
 वो तिरी याद के शोले हों कि अहसास मिरे
कुछ न कुछ आग ज़रूरी है पिघलने के लिए
 ये बहाना तिरे दीदार की ख़्वाहिश का है
हम जो आते हैं इधर रोज़ टहलने के लिए
 महफ़िले-इश्क़ में शम्ओं की ज़रूरत क्या है
 दिल को ही मोम बनाते हैं पिघलने के लिए

16.

‌दुनिया इक दरिया है, पार उतरना भी तो है बेईईमानीकर लूँ लेकिन मरना भी तो है पत्थर हूँ भगवान बना रह सकता हूँ कब तक रेज़ा-रेज़ा हो के मुझे बिखरन भी तो है ऐसे मुझको मारो कि क़ातिल भी ठहरूँ मैं आखिर ये इल्ज़ाम किसी पे धरना भी तो है दिल से तुम निकले हो तो कोई और सही कोई और ये जो ख़ालीपन है इसको भरना भी तो है बाँध बनाने वालों को मालूम नहीं शायद पानी जो ठह्रा है उसे गुज़रना भी तो है साहिल वालो! अभी तमाशा ख़त्म नहीं मेरा डूब रहा हूँ लेकिन मुझे उभरना भी तो है अच्छी है या बुरी है चाहे जैसी है दुनिया आया हूँ तो कुछ दिन यहाँ ठहरना भी तो है




अपनी हस्ती को मिटा दूँ तिरे जैसा हो जाऊँ इस तरह चाहूँ तुझे मैं तिरा हिस्सा हो जाऊँ पायलें बाँध के बारिश की करुँ रक़्से-जुनूँ1 तू घटा बनके बरस और मैं सह्‌रा2 हो जाऊँ दूर तक ठह्‌रा हुआ झील का पानी हूँ मैं तेरी परछाईं जो पड़ जाए तो दरिया हो जाऊँ शह्‌र-दर-शह्‌र मिरे इश्क़ की नौबत बाजे मैं जहाँ जाउँ तिरे नाम से रुस्वा हो जाऊँ आदमी बनके बहुत मैनें तुझे सजदे किए तू ख़ुदा बन के मुझे मिल मैं फ़रिश्ता हो जाऊँ इस तरह मिल कि बिछड़ने का तसव्वुर न रहे इस तरह माँग मुझे तू कि मैं तेरा हो जाऊँ इतना बीमार कि साँसों से धुआँ उठता है आ तुझे देख लूँ और देख के अच्छा हो जाऊँ




तुझको सोचूँ तो तिरे जिस्म की ख़ुश्बू आए मेरी ग़ज़लों में मुहब्बत की तरह तू आए रात सीने में जले थे तिरी चाहत के दिये दिल जो पिघला तो मिरी आँख में आँसू आए क़र्ज़ है मुझपे बहुत रात की तन्हाई का मेरे कमरे में कोई चाँद न जुगनू आए लग के सोया है तिरा दर्द मिरे सीने से सुब्ह हो जाये कि जज़्बात पे क़ाबू आए पंख लगने लगे जब दिल ने किया याद उसे वो बहुत दूर था लेकिन हम उसे छू आए मैं तिरे नाम पे खामोश रहूँ, सब बोलें बातों-बातों में कोई ऐसा भी पहलू आए उसका पैकर1 कई क़िस्तों में छपे नाविल सा कभी चेह्‌रा, कभी आँखें, कभी गेसू2 आए

फिर मुझे वज़्न किया जाए शहादत3 के लिए फिर अदालत में कोई लेके तराज़ू आए अब के मौसम में ये दीवार भी गिर जाए ‘शकील’ इस तरह जिस्म की बुनियाद में आँसू आए



इक दूजे की आग में जलना अच्छा लगता है साथी हो तो पैदल चलना अच्छा लगता है मयखाने से उसकी गली तक आने-जाने में ख़ुद ही गिरना और सँभलना अच्छा लगता है पाने से भी कुछ ज़्यादा है बात न पाने में तेरी तलब में दिल का मचलना अच्छा लगता है दस्ते-दुआ1 पर फूँक के अक्सर नामे-खुदा के साथ नाम तिरा चेह्‌रे पर मलना अच्छा लगता है मिलना-जुलना बन्द है लेकिन अब भी जाने क्युँ शाम ढले तो घर से निकलना अच्छा लगता है बर्फ़ सा मेरे दिल का तेरे ग़म के मौसम में जम जाना और जम के पिघलना अच्छा लगता है मेरा भी तो कुछ रिश्ता है चाँद-सितारों से सूरज हूँ पर शाम को ढलना अच्छा लगता है



आँखों से मेरे दर्द को बहना नहीं पड़ा उसने युँही समझ लिया कहना नहीं पड़ा इक बार अपने दिल की सदा पर निकल पड़े पाबन्दियों में फिर हमें रहना नहीं पड़ा हम जब उदासियों से मिले मुस्कुरा दिए ग़म को ख़ुशी बना लिया, सहना नहीं पड़ा सोना भी कुछ उदास था चाँदी भी ग़मज़दा जब तक बदन पे प्यार का गहना नहीं पड़ा वो बेलिबास आइनाख़ाने में था मगर शीशे पे उसका अक्स बरह्‌ना1 नहीं पड़ा सदियों से मैं ग़रीब घराने का हूँ मकान सब घर बदल गए मुझे ढहना नहीं पड़ा



ख़्वाब देखो, कोई ख़्वाहिश तो करो जीना आसान है, कोशिश तो करो आज भी प्यार है दुनिया में बहुत जोड़कर हाथ गुज़ारिश तो करो जंग ये जीती भी जा सकती है ज़िन्दगी से कोई साज़िश तो करो सब्ज़ओ-गुल1 हैं इसी ख़ाक तले बनके बादल कभी बारिश तो करो लोग मरहम भी लगायेगें ‘शकील’ पहले ज़ख़्मों की नुमाइश तो करो


सर पे सूरज लिए खड़ा हूँ मैं अपनी परछाईं से बड़ा हूँ मैं किसी पत्थर से टूटता भी नहीं जाने किस फ्रेम में जड़ा हूँ मैं अपने चेहरे के धुंदलेपन के लिए कितने आईनों से लड़ा हूँ मैं अब तो ख़ुश हो, कि हार मेरी हुई हाथ बाँधे हुए खड़ा हूँ मैं मेरी मिट्टी बुला रही है मुझे जाने किस ख़ाक में गड़ा हूँ मैं फिर मुख़ालिफ़1 हैं सारे लोग मिरे फिर किसी बात पर अड़ा हूँ मैं ऊँगलियाँ उठ रही हैं मुझपे ‘शकील’ जाने किस सिम्त2 चल पड़ा हूँ मैं


सच वो क़तरा जो गुहर1 हो ही नहीं सकता था इस कमाई से तो घर हो ही नहीं सकता था वो तो तुम आबो-हवा लाए कि आबाद हुआ इस ख़राबे में नगर हो ही नहीं सकता था ये तिरे लम्स2 की गर्मी है जो हम चल निकले ऐसी सर्दी में सफ़र हो ही नहीं सकता था मोम से मेरा तअल्लुक़ था तिरा शोलों से अपना इक साथ गुज़र हो ही नहीं सकता था उस तरफ़ लोग गुनह्गार भी थे, अपने भी मैं किसी तर्ह उधर हो ही नहीं सकता था शाह को उसके पियादों से लड़ाया मैनें वरना ये मार्का3 सर हो ही नहीं सकता था सिलसिला मेरा था सूरज के घराने से ‘शकील’ मुझपे आँधी का असर हो ही नहीं सकता था


दूरियाँ बढ़ती गईं, चिट्ठी का रिश्ता रह गया सब गए परदेस घर में बाप तन्हा रह गया छोटे-छोटे रास्ते शह्‌रों में जाकर खो गए गाँव अपने साथियों की राह तकता रह गया गर्मियों की छुट्टियों में भी न आया घर कोई धीरे-धीरे पेड़ पर ही आम पकता रह गया अब कहाँ है द्वार पर बैलों की घन्टी का समाँ खेत तो अबके बरस भी गिरवी रक्खा रह गया नीम बारिश में गिरा, आँधी में जामुन गिर गई एक पीपल सब रुतों के वार सहता रह गया नाव काग़ज़ की न अबके छपकियाँ बच्चों की थीं बाढ़ का पानी गली में यूँही बहता रह गया

ज़िन्दगी की नई उड़ान थे हम अपनी मिट्टी में आसमान थे हम चाँद ने रात घर पे दस्तक दी रात भर उसके मेज़बान थे हम ढह गए इक ज़रा हवा जो चली क्या करें रेत के मकान थे हम जब तलक उसने हमसे बातें कीं जैसे फूलों के दरमियान थे हम उसको चुप-चाप सुन लिया हमने जैसे सचमुच के बेज़बान थे हम जिससे मिलती थी झूट की सरहद उस हक़ीक़त से बदगुमान थे हम लोग समझे नहीं हमें शायद मस्जिदों से उठी अज़ान थे हम


वो चाहतों के समुन्दर वो प्यास-प्यास बदन मिले तो आज बहुत ख़ुश थे दो उदास बदन फ़ज़ा में चारों तरफ़ इक नशा सा फैला था ज़माने बाद मिले थे बदन-शनास1 बदन पिघल के सोने की इक तह जमी थी कमरे में चमक रहा था अँधेरे में बेलिबास2 बदन कहीं जो बाँहों में आए तो आग लग जाए वो उँगलियों में फिसलता हुआ कपास बदन वो चार पैग की मस्ती, वो ख़्वाहिशों का ख़ुमार वो रक़्स3 करते हुए मेरे आस-पास बदन नशे में एक ही हम्माम के हुए सारे निगाहे-आम से खुलने लगे थे ख़ास बदन हमारे होंट भी सैराब4 हो गए इक दिन छलक रहा था बहुत भरके वो गिलास बदन ज़बान फेरूँ तो अब भी लहू मचलता है लबों पे छोड़ गया था कभी मिठास बदन हवा में घुल के महकने लगा था साँसों में सहर की ओस में भीगा हुआ वो घास बदन


दिल में रख ले मुझे, अरमान बना ले मुझको जिस्म मिट्टी है तिरा जान बना ले मुझको ग़ैर से देख मुझे तेरा ही चेह्‌रा हूँ मैं आइना तोड़ दे पहचान बना ले मुझको चाहता है तो मुझे ढूँढ परेशाँ होकर मैं मिलूंगा तुझे ईमान बना ले मुझको हमसफ़र होने का दर्जा जो नहीं दे सकता अपने रस्ते का तू सामान बना ले मुझको जान दे दूँगा मिरी जान हिफ़ाज़त में तिरी तू जो दिल्ली है तो सुलतान बना ले मुझको


धड़कनों में किसी दस्तक की सदा1 हो जैसे दिल का दरवाज़ा कोई खोल रहा हो जैसे जाने किस मोड़ पे ये वह्‌म हक़ीक़त बन जाय मेरे पीछे कोई साया सा लगा हो जैसे लम्स2 अहसास को कुछ ऐसे हवा देता है वो मुझे अपना बदन सौंप गया हो जैसे फ़िक्र मेरी किसी मज़दूर के घर की चौखट जिस्म मेरा कहीं रस्ते में पड़ा हो जैसे ऐसा लगता है खिले फूल पे शबनम3 का वजूद उसके होंटों पे मिरे हक़ में दुआ हो जैसे यूँ मचलती हैं समाअत4 पे हवा की लहरें उसने चुपके से मिरा नाम लिया हो जैसे यूँ समाया है हवाओं में बदन ख़ुश्बू का रुह में ग़म कोई तहलील5 हुआ हो जैसे देख लेता है मुझे वो भी कनअंखियों से ‘शकील’ मेरे मन में भी कोई चोर छुपा हो जैसे


कल हवा में बिखर गया था मैं फिर न जाने किधर गया था मैं वो था इक ख़त्म होते रस्ते सा जिसपे चलकर ठहर गया था मैं उसकी आँखों में एक दरिया था जिसमें इक दिन उतर गया था मैं अपनी नज़रों से गिरके उठ पाना ऐसा करने में मर गया था मैं उसको देखा था उससे ही छुपकर फिर वहाँ से गुज़र गया था मैं जब कहीं भी मुझे जगह न मिली अपनी आँखों में भर गया था मैं देर तक उसका इन्तेज़ार किया फिर अकेला ही घर गया था मैं


कल हवा में बिखर गया था मैं फिर न जाने किधर गया था मैं वो था इक ख़त्म होते रस्ते सा जिसपे चलकर ठहर गया था मैं उसकी आँखों में एक दरिया था जिसमें इक दिन उतर गया था मैं अपनी नज़रों से गिरके उठ पाना ऐसा करने में मर गया था मैं उसको देखा था उससे ही छुपकर फिर वहाँ से गुज़र गया था मैं जब कहीं भी मुझे जगह न मिली अपनी आँखों में भर गया था मैं देर तक उसका इन्तेज़ार किया फिर अकेला ही घर गया था मैं



कई आँखों में रहती है कई बांहें बदलती है मुहब्बत भी सियासत की तरह राहें बदलती है इबादत में न हो गर फायदा तो यूँ भी होता है अक़ीदत1 हर नई मन्नत2 पे दरगाहें बदलती है न इक सा आबो-दाना3 है, न कोई इक ठिकाना है मुसाफिर की थकन हर शब पनहगाहें बदलती है हज़ारों मंज़िलें आईं मगर ठहरा नहीं हूँ मैं अजब इक जुस्तुजू4 है जो गुज़रगाहें5 बदलती है उगे हैं बस्तियों में जो वो सब जंगल हमारे हैं हवाए- शह्‌र भी जिस वक़्त हम चाहें बदलती है





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