मुन्नवर राना best शायरी

ऐसे उडूँ कि जाल न आए ख़ुदा करे 

रस्ते में अस्पताल न आए ख़ुदा करे 


ये मादरे वतन है, मेरा मादरे वतन 

इस पर कभी ज़वाल न आए ख़ुदा करे


 अब उससे दोस्ती है तो फिर दोस्ती रहे 

शीशे पे कोई बाल न आए ख़ुदा कर


किसी के ज़ख्म पर चाहत से पट्टी कौन बाँधेगा

 अगर बहनें नही होंगी तो राखी कौन बाँधेगा 

जहाँ लड़की की इज़्ज़त लूटना इक खेल बन जाए

 वहाँ पर ये कबूतर तेरे चिट्ठी कौन बाँधेगा

 ये बाज़ारे सियासत है यहाँ ख़ुददारियाँ कैसी

 सभी के हाथ में कासा है मुट्ठी कौन बाँधेगा

 तुम्हारी महफ़िलों में हम बड़े बूढ़े ज़रूरी हैं

 अगर हम ही नहीं होंगे तो पगड़ी कौन बाँधेगा

 परेशाँ तो यहाँ पर सब हैं लेकिन तय नहीं होता

 कि बिल्ली के गले में बढ़ के घंटी कौन बाँधेगा


मसनद नशीन हो के न कुर्सी पे बैठ कर 

गुज़रेंगे पुलसिरात से नेकी पे बैठ कर

 इस अह्द में हज़ार के नोटों की क़द्र है

 गाँधी भी ख़ुश नहीं थे चवन्नी पे बैठकर 

गेहूँ के साथ धुन को भी पिसते हुए जनाब

 देखा है हमने गाँव की चक्की पे बैठ कर

 बच्चे को अपने दाना भराती थी

 फ़ाख़्ता माँ के समान पेड़ की टहनी पे बैठ कर 

रिश्ता कबूतरों से मेरा बचपने का है 

खाते थे मेरे साथ चटाई पे बैठ कर 

यादों की रेल आज वहीं आ के रुक गई 

खेले थे हम जहाँ कभी पटरी पे बैठकर


जिसने भी इस ख़बर को सुना सर पकड़ लिया

 कल इक दिये ने आँधी का कालर पकड़ लिया

 उसकी रगों में दौड़ रहा था मेरा लहू 

बेटे ने बढ़ के दस्ते सितमगर पकड़ लिया

 जिसकी बहादुरी के क़सीदे लिखे गए 

निकला शिकार पर तो कबूतर पकड़ लिया

 इक उम्र तक तो मुझको रहा तेरा इन्तिज़ार

 फिर मेरी आरज़ूओं ने बिस्तर पकड़ लिया

 तितली ने एहतिजाज की क़िस्मत संवार दी 

भौंरे ने जब कभी उसे छत पर पकड़ लिया



अपने बाज़ू पे मुक़द्दस सी इक आयत बाँधे

 घर से निकला हूँ इमामों की ज़मानत बाँधे 

कितना मुश्किल है विरासत को बचाए रखना 

दर ब दर फिरता हूँ गठरी में शराफ़त बाँधे 

रात के ख़्वाब की ताबीर से डर लगता है

 कुछ ज़िना ज़ादे थे दस्तारे फ़ज़ीलत बाँधे 

ज़िन्दगी रोज़ मुझे ले के निकल पड़ती है 

अपनी मुट्ठी में कई लोगों की क़िस्मत बाँधे 

हम गुनहगार सही, उनसे बहुत अच्छे हैं 

जो खड़े रहते हैं दरबारों में नीयत बाँधे 

हम तो उठ आए हैं उस कूचए दिलदारी से

 चाहे अब जैसे भी धुँधरू ये सियासत बाँधे

 माँ को इक बार नहीं आधी सदी देखा है

 अपने आँचल में बुजर्गों की नसीहल बाँध



आ कहीं मिलते हैं हम ताकि बहारें आ जायें 

इससे पहले कि तअल्लुक़ में दरारें आ जायें 

ये जो ख़ुददारी का मैला सा अँगोछा है मेरा 

मैं अगर बेच दूँ इसको कई कारें आ जायें 

दुश्मनी हो तो फिर ऐसी कि कोई एक रहे

 या तअल्लुक़ हो तो ऐसा ही पुकारें आ जायें 

ज़िन्दगी दी है तो फिर इतनी सी मोहलत दे

 दे एक कम ज़र्फ़ का एहसान उतारें आ जायें 

ये भी मुमकिन है उन्हीं में कहीं हम लेटे हों

 तुम ठहर जाना जो रस्ते में मज़ारे आ जायें

 हाय, क्या लोग थे हर शाम दुआ करते थे

 लौट कर सारे परिन्दों की क़तारें आ जाएं



लौट कर जैसे भी हो जाने पिदर! आ जाना

 ऐसी वैसी जो ख़बर सुनना तो घर आ जाना 

वक़्ते रुख़्सत मुझे इज्ज़त से सलामी देने

 जब डुबोने लगे दरिया तो नज़र आ जाना

 यह अना होती ही ऐसी है इसे क्या कीजै 

आम सी बात है बेटे में असर आ जाना 

मौत ख़ुद अपने ठिकाने पे बुला लेती है

 हमने देखा है मियाँ च्यूँटी के पर आ जाना

 आज भी उसके तसव्वुर से सुकूँ मिलता है

 जैसे सहरा में कोई पेड़ नज़र आ जाना


तेरी महफ़िल से अगर हम न निकाले जाते

 हम तो मर जाते मगर तुझको बचा ले जाते 

दबदबा बाक़ी है दुनिया में अभी तक

 वर्ना लोग मिंबर से इमामों को उठा ले जाते

 बेवफ़ाई ने हमें तोड़ दिया है 

वर्ना गिरते पड़ते ही सही ख़ुद को संभाले जाते

 हर घड़ी मौत तक़ाज़े को खड़ी रहती है 

कब तलक हम उसे वादे पे टाले जाते



ग़ज़ल हर अह्द में हम से सलीक़ा पूछने आई

 बरेली में कहाँ मिलता है सुर्मा पूछने आई

मैं जब दुनिया में था तो हाल तक पूछा नहीं मेरा 

मैं जब चलने लगा तो सारी दुनिया पूछने आई


बुलन्दी देर तक किस शख़्स के हिस्से में रहती है

 बहुत ऊँची इमारत हर घड़ी ख़तरे में रहती है

 बहुत जी चाहता है क़ैदे-ए-जाँ से हम निकल जायं

 तुम्हारी याद भी लेकिन इसी मलबे में रहती है

 यह ऐसा क़र्ज़ है जो मैं अदा कर ही नहीं सकता

 मैं जब तक घर न लौटूँ मेरी माँ सजदे में रहती है 

अमीरी रेशम-ओ-कमख़्वाब में नंगी नज़र आयी

 ग़रीबी शान से एक टाट के परदे में रहती है 

मैं इन्सां हूँ बहक जाना मेरी फ़ितरत में शामिल है

 हवा भी उसको छू कर देर तक नश्शे में रहती है 

मुहब्बत में परखने-जाँचने से फ़ायदा क्या है

 कमी थोड़ी-बहुत हर एक के शिजरे में रहती है

 ये अपने आपको तक़्सीम कर लेता है सूबों में

 ख़राबी बस यही हर मुल्क के नक़्शे में रहती है



मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है 

सियासत दोस्ती की जड़ में मट्टा डाल देती है

 तवायफ़ की तरह अपने ग़लत कामों के चेहरे पर 

हुकूमत मन्दिर-ओ-मस्जिद का पर्दा डाल देती है 

हुकूमत मुँह-भराई के हुनर से ख़ूब वाक़िफ़ है 

ये हर कुत्ते के आगे शाही टुकड़ा डाल देती है 

कहाँ की हिजरतें, कैसा सफ़र, कैसा जुदा होना 

किसी की चाह पैरों पर दुपट्टा डाल देती है

 ये चिड़िया भी मेरी बेटी से कितनी मिलती-जुलती है

 कहीं भी शाख़-ए-गुल देखे तो झूला डाल देती है

 भटकती है हवस दिन-रात सोने की दुकानों में

 ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है

 हसद की आग में जलती है सारी रात वो औरत

 मगर सौतन के आगे अपना जूठा डाल देती है


हँसते हुए माँ बाप की गाली नहीं खाते

 बच्चे हैं तो क्यों शौक़ से मिट्टी नहीं खाते 

तुझ से नहीं मिलने का इरादा तो है लेकिन

 तुझसे न मिलेंगे ये क़सम भी नहीं खाते

 सो जाते हैं फुटपाथ पे अख़बार बिछाकर

 मज़दूर कभी नीदं की गोली नहीं खाते

 बच्चे भी ग़रीबी को समझने लगे शायद 

अब जाग भी जाते हैं तो सहरी नहीं खाते

 दावत तो बड़ी चीज़ है हम जैसे क़लंदर 

हर एक के पैसे की दवा भी नहीं खाते

 अल्लाह ग़रीबों का मददगार है ‘राना’

 हम लोगों के बच्चे कभी सर्दी नहीं खाते


मेरी ख़्वाहिश है कि फिर से मैं फ़रिश्ता हो जाऊँ

 माँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ 

कम-से-कम बच्चों के होंटों की हँसी की ख़ातिर 

ऐसी मिट्टी में मिलाना कि खिलौना हो जाऊँ 

सोचता हूँ तो छलक उठती हैं मिरी आँखें

 तेरे बारे में न सोचूँ तो अकेला हो जाऊँ 

चारागर तेरी महारत पे यक़ीं है लेकिन

 क्या ज़रूरी है कि हर बार मैं अच्छा हो जाऊँ 

बेसबब इश्क़ में मरना मुझे मंजूर नहीं 

शमा तो चाह रही है कि पतंगा हो जाऊं 

शायरी कुछ भी हो, रुसवा नहीं होने देती

 मैं सियासत में चला जाऊँ तो नंगा हो जाऊँ



फ़रिश्ते आ के उनके जिस्म पर ख़ुशबू लगाते हैं 

वो बच्चे रेल के डिब्बों में जो झाड़ू लगाते हैं 

अँधेरी रात में अक्सर सुनहरी मशअलें लेकर 

परिन्दों की मुसीबत का पता जुगनू लगाते हैं 

दिलों का हाल आसानी से कब मालूम होता है

 कि पेशानी पे चन्दन तो सभी साधू लगाते हैं

 ये माना आपको शोले बुझाने में महारत है 

मगर वो आग जो मज़लूम के आँसू लगाते हैं

 किसी के पाँव की आहट से दिल ऐसे उछलता है 

छलाँगें जंगलों में जिस तरह आहू  लगाते हैं

 बहुत मुमकिन है अब मेरा चमन वीरान हो जाये 

सियासत के शजर पर घोंसले उल्लू लगाते हैं


घर में रहते हुए ग़ैरों की तरह होती हैं

 बेटियाँ धान के पौधों की तरह होती हैं 

उड़के एक रोज़ बहुत दूर चली जाती हैं 

घर की शाखों पे ये चिड़ियों की तरह होती हैं 

सहमी-सहमी हुई रहती हैं मकान-ए-दिल में

 आरजूएँ भी ग़रीबों की तरह होती हैं 

टूट कर ये भी बिखर जाती हैं एक लम्हें में

 कुछ उम्मीदें भी घरौदों की तरह होती हैं 

आपको देख के जिस वक़्त पलटती है

 नज़र मेरी आँखें, मेरी आँखों की तरह होती है

 बाप का रुतबा भी कुछ कम नहीं होता लेकिन

 जितनी माँएँ हैं, फ़रिश्तों की तरह होती हैं



लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कराती है 

मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ और हिन्दी मुस्कराती है 

उछलते-खेलते बचपन में बेटा ढूँढती होगी 

तभी तो देख कर पोते को दादी मुस्कराती है

 तभी जा कर कहीं माँ-बाप को कुछ चैन पड़ता है

 कि जब ससुराल से घर आ के बेटी मुस्कराती है

 चमन में सुब्ह का मंज़र बड़ा दिलचस्प होता है

 कली जब सो के उठती है तो तितली मुस्कराती है

 हमें ऐ ज़िन्दगी तुझ पर हमेशा रश्क़ आता है 

मसाइल में घिरी रहती है फिर भी मुस्कराती है 

बड़ा गहरा तआल्लुक़ है सियासत से तबाही का 

कोई भी शहर जलता है तो दिल्ली मुस्कराती है



जब भी कश्ती मेरी सैलाब में आ जाती है 

माँ दुआ करती हुई ख़्वाब में आ जाती है 

रोज़ मैं अपने लहू से उसे ख़त लिखता हूँ 

रोज़ उँगली मेरी तेज़ाब में आ जाती है 

दिल की गलियों से तेरी याद निकलती ही नहीं 

सोहनी फिर इसी पंजाब में आ जाती है 

रात भर जागते रहने का सिला है शायद

 तेरी तस्वीर-सी महताब में आ जाती है 

एक कमरे में बसर करता है सारा कुनबा 

सारी दुनिया दिल-ए-बेताब में आ जाती है

 ज़िन्दगी, तू भी भिखारिन की रिदा ओढ़े हुए कूचा-ए-रेशम-ओ-कमख़्वाब में आ जाती है

 दुख किसी का हो छलक उठती हैं

 मेरी आँखें सारी मिट्टी मेरे तालाब में आ जाती है


दुख भी ला सकती है लेकिन जनवरी अच्छी लगी 

जिस तरह बच्चों को जलती फुलझड़ी अच्छी लगी 

रो रहे थे सब तो मैं भी फूट कर रोने लगा

 वरना मुझको बेटियों की रुख़सती अच्छी लगी

 ऐ ख़ुदा, तू फ़ीस के पैसे अता कर दे मुझे

 मेरे बच्चों को भी यूनीवर्सिटी अच्छी लगी

 वो सिमट जाना किसी का सुन के मेरा तज़किरा 

लालटेनों में सँभलती रोशनी अच्छी लगी

 तेरे दामन में सितारे हैं तो होंगे ऐ फ़लक

 मुझ को अपनी माँ की मैली ओढ़नी अच्छी लगी



न मैं कंघी बनाता हूँ, न मैं चोटी बनाता हूँ

 ग़ज़ल में आपबीती को मैं जगबीती बनाता हूँ 

ग़ज़ल वो सिन्फ़-ए-नाज़ुक है जिसे अपनी रफ़ाक़त से

 वो महबूबा बना लेता है मैं बेटी बनाता हूँ

 हुकूमत का हर एक इनआम है बन्दूक़साज़ी पर

 मुझे कैसे मिलेगा मैं तो बैसाखी बनाता हूँ

 मेरे आँगन की कलियों को तमन्ना शाहज़ादों की

 मगर मेरी मुसीबत ये है मैं बीड़ी बनाता हूँ 

सज़ा कितनी बड़ी है गाँव से बाहर निकलने की

 मैं मिट्टी गूँधता था अब डबलरोटी बनाता हूँ

 वज़ारत चन्द घण्टों की महल मीनार से ऊँचा 

मैं औरंग़जे़ब हूँ अपने लिए खिचड़ी बनाता हूँ

 बस इतनी इल्तजा है तुम इसे गुजरात मत करना

 तुम्हें इस मुल्क का मालिक मैं जीते-जी बनाता हूँ

 मुझे इस शहर की सब लड़कियाँ आदाब करती हैं

 मैं बच्चों की कलाई के लिए राखी बनाता हूँ 

तुझे ऐ ज़िन्दगी अब क़ैदख़ाने में गुज़रना है 

तुझे मैं इसलिए दुख-दर्द का आदी बनाता हूँ 

मैं अपने गाँव का मुखिया भी हूँ बच्चों का क़ातिल भी

 जला कर दूध कुछ लोगों की ख़ातिर घी बनाता हूँ



ऐ अँधेरे, देख ले, मुँह तेरा काला हो गया

 माँ ने आँखें खोल दीं घर में उजाला हो गया

 राई के दाने बराबर भी न था जिसका वजूद

 नफ़रतों के बीच रह कर वो हिमाला हो गया

 एक आँगन की तरह ये शहर था कल तक मगर

 नफ़रतों में टूट कर मोती की माला हो गया

 शहर को जंगल बना देने में जो मशहूर था

 आज कल सुनते हैं वो अल्लाह वाला हो गया

 हम ग़रीबों में चले आये, बहुत अच्छा किया 

आज थोड़ी देर को घर में उजाला हो गया


मिट्टी में मिला दे के जुदा हो नहीं सकता

 अब इस से ज़्यादा मैं तेरा हो नहीं सकता

 दहलीज़ पे रख दी हैं किसी शख़्स ने आँखें

 रौशन कभी इतना तो दीया हो नहीं सकता

 बस तू मेरी आवाज़ से आवाज़ मिला दे 

फिर देख कि इस शहर में क्या हो नहीं सकता

 ऐ मौत मुझे तूने मुसीबत से निकाला 

सय्याद समझता था, रिहा हो नहीं सकता

 इस ख़ाक बदन को कभी पहुँचा दे वहाँ भी

 क्या इतना करम बादे सबा हो नहीं सकता

 पेशानी को सज्दे भी अता कर मेरे मौला

 आँखों से तो ये क़र्ज अदा हो नहीं सकता

 दरबार में जाना मेरा दुश्वार बहुत है

 जो शख़्स क़लंदर हो गदा हो नहीं सकता


अमीरे शहर को तलवार करने वाला हूँ 

मैं जी हुज़ूरी से इनकार करने वाला हूँ 

कहो अँधेरे से दामन समेट ले अपना 

मैं जुगनुओं को अलमदार करने वाला हूँ

 तुम अपने शहर के हालात जान सकते हो 

मैं अपने आपको अख़बार करने वाला हूँ 

मैं चाहता था कि छूटे न साथ भाई का

 मगर वो समझा के मैं वार करने वाला हूँ

 बदन का कोई भी हिस्सा ख़रीद सकते हो

 मैं अपने जिस्म को बाज़ार करने वाला हूँ

 तुम अपनी आँखों से सुनना मेरी कहानी को

 लब-ए-ख़ामोश से इज़हार करने वाला हूँ

 हमारी राह में हाइल कोई नहीं होगा 

तू एक दरिया है मैं पार करने वाला हूँ



अगर दौलत से ही सब क़द का अंदाज़ा लगाते हैं 

तो फिर ऐ मुफ़लिसी हम दाँव पर कासा लगाते हैं

 उन्हीं को सर बुलन्दी भी अता होती है दुनिया में

 जो अपने सर के नीचे हाथ का तकिया लगाते हैं 

हमारा सानेहा ये है कि हर दौरे हुकूमत में

 शिकारी के लिए जंगल में हम हाँका लगाते हैं

 वो शाइर हों के आलिम हों के ताजिर या लुटेरे हों

 सियासत वो जुआ है जिस में सब पैसा लगाते हैं

 उगा रक्खे हैं जंगल नफ़रतों के सारी बस्ती में

 मगर गमले में मीठी नीम का पौधा लगाते हैं

ज़्यादा देर तक मुर्दे कभी रखे नहीं जाते

 शराफ़त के जनाज़े को चलो काँधा लगाते हैं

 ग़ज़ल की सल्तनत पर आज तक क़ब्ज़ा हमारा है

 हम अपने नाम के आगे अभी ‘राना’ लगाते हैं


नाकामियों के बाद भी हिम्मत वही रही

 ऊपर का दूध पी के भी ताक़त वही रही

 शायद ये नेकियाँ हैं हमारी कि हर जगह 

दस्तार के बग़ैर भी इज़्ज़त वही रही 

मैं सर झुका के शहर में चलने लगा मगर

 मेरे मुख़ालिफ़ीन में दहशत वही रही 

जो कुछ मिला था माले-ग़नीमत में लुट गया

 मेहनत से जो कमाई थी दौलत वही रही 

क़दमों में ला के डाल दीं सब नेअमतें

 मगर सौतेली माँ को बच्चे से नफ़रत वही रही

 खाने की चीज़ माँ ने जो भेजी है गाँव से

 बासी भी हो गयी है तो लज़्ज़त वही रही


कभी ख़ुशी से ख़ुशी की तरफ़ नहीं देखा 

तुम्हारे बाद किसी की तरफ़ नहीं देखा

 ये सोच कर के तेरा इंतज़ार लाज़िम है

 तमाम उम्र घड़ी की तरफ़ नहीं देखा

 यहाँ तो जो भी है आबे-रवां का आशिक़ है 

किसी ने ख़ुश्क नदी की तरफ़ नहीं देखा

 वो जिसके वास्ते परदेस जा रहा हूँ मैं 

बिछड़ते वक़्त उसी की तरफ़ नहीं देखा

 न रोक ले हमें रोता हुआ कोई चेहरा

 चले तो मुड़ के गली की तरफ़ नहीं देखा

 बिछड़ते वक़्त बहुत मुतमइन थे हम दोनों

किसी ने मुड़ के किसी की तरफ़ नहीं देखा 

रविश बुज़ुर्गों की शामिल है मेरी घुट्टी में

 ज़रूरतन भी सख़ी की तरफ़ नहीं देखा


लबों पे उसके कभी बद-दुआ नहीं होती 

बस एक माँ है जो मुझसे ख़फ़ा नहीं होती 

मैं इक फ़क़ीर के होंटों की मुस्कुराहट हूँ 

किसी से भी मेरी क़ीमत अदा नहीं होती

 मेरा ख़मीर बना है वहाँ की मिट्टी से

 जहाँ की फ़ाहशा भी बेवफ़ा नहीं होती 

धुआँ उगलती हुई गाड़ियाँ पकड़ते हैं

जो आग उगलते हैं उनको सज़ा नहीं होती


इक ज़ख़्मी परिन्दे की तरह जाल में हम हैं 

ऐ इश्क़ अभी तक तेरे जंजाल में हम हैं 

माँ ख़्वाब में आकर यह बता जाती है हर रोज़

 बोसीदा सी ओढ़ी हुई इस शाल में हम हैं 

हँसते हुए होंटों ने भरम रक्खा हमारा

 वह देखने आया था कि किस हाल में हम हैं

 अब आपकी मर्जी है सँभालें न सँभालें

 ख़ुश्बू की तरह आप के रूमाल में हम हैं 

हम फूट के रोने लगे जब मौत के डर से 

नेकी ने कहा, नामये आमाल में हम हैं 

हम थक के कहीं बैठने वाले नहीं हरगिज़

 इस हिरनी की लंगड़ाती हुई चाल में हम हैं 

इक ख़्वाब की सूरत ही सही याद है अब तक

 माँ कहती थी ले ओढ़ ले इस शाल में हम हैं



कब वापसी का हुक्म हो धड़का भी लग गया

 अब तो हमारी आँखों पे चश्मा भी लग गया

 माँ लाशऊरी तौर पे शे’रों में आ गई

 जन्नत में एक पेड़ ग़ज़ल का भी लग गया 

गौरय्या ले के जाये कहाँ अपना घोंसला

 इस पेड़ पर तो शहद का छत्ता भी लग गया

 बचपन में इतनी बात पे भी रो चुके हैं हम 

चिड़िया कहाँ से आयेगी शीशा भी लग गया 

माँ बाप ख़ुश हैं काम पे बच्चे को भेज कर

 दुनिया के कारोबार में सजदा भी लग गया 

यह मोजिज़ा भी देखा है साहिल पे एक रोज़ 

ख़िदमत में एक प्यासे की दरिया भी लग गया 

इक हाथ भी उठा न गवाही के वास्ते

 लगने को मेरे नाम पे मेला भी लग गया


दिल वो बस्ती है जहाँ कोई तमन्ना न मिली

 मैं वो पनघट हूँ जिसे कोई भी राधा न मिली

 एक ही आग में ता उम्र जले हम दोनों 

तुम को यूसुफ़ न मिला हमको ज़ुलेख़ा न मिली 

मेरा बनवास पे जाने का इरादा था मगर

 मुझ को दुनिया में कहीं भी कोई सीता न मिली

 उसने बुलवाये थे मशहूर नजूमी लेकिन

 खुरदुरे हाथ में तक़दीर की रेखा न मिली

 इत्तफ़ाक़न कभी आयी तो कोई ग़म लायी 

ऐ ख़ुशी, तू मुझे एक बार भी तनहा न मिली



मैं इसके नाज़ उठाता हूँ सो यह ऐसा नहीं करती

 यह मिट्टी मेरे हाथों को कभी मैला नहीं करती 

खिलौनों की दुकानों की तरफ़ से आप क्यों गुज़रे 

ये बच्चे की तमन्ना है यह समझौता नहीं करती

 शहीदों की ज़मीं है जिसको हिन्दुस्तान कहते हैं

 ये बंजर हो के भी बुज़दिल कभी पैदा नहीं करती

 मोहब्बत क्या है दिल के सामने मजबूर हो जाना 

जुलेख़ा वर्ना यूसुफ़ का कभी सौदा नहीं करती

 गुनहगारों की सफ़ में रख दिया मुझको ज़रूरत ने 

मैं ना महरम हूँ लेकिन मुझसे ये पर्दा नहीं करती 

अजब दुनिया है तितली के परों को नोच लेती है

 अजब तितली है पर नुचने पे भी रोया नहीं करती



मैं हूँ अगर चराग़ तो जल जाना चाहिए

 मैं पेड़ हूँ तो पेड़ को फल जाना चाहिए

 रिश्ते को क्यों उठाये कोई बोझ की तरह 

अब उसकी ज़िन्दगी से निकल जाना चाहिए

 जब दोस्ती भी फूँक के रखने लगे क़दम 

फिर दुश्मनी तुझे भी सँभल जाना चाहिए

 मेहमान अपनी मर्ज़ी से जाते नहीं कभी 

तुमको मेरे ख़याल से कल जाना चाहिए 

नौटंकी बन गया हो जहाँ पर मुशायर

 ऐसी जगह सुनाने ग़ज़ल जाना चाहिए

 इस घर को अब हमारी ज़रूरत नहीं रही 

अब आफ़ताबे उम्र को ढल जाना चाहिए



मुद्दतों पहले जो डूबी थी वो पूँजी मिल गयी 

जो कभी दरिया में फेंकी थी वो नेकी मिल गयी 

कितनी आसानी से इस ज़िल्लत से छुट्टी मिल गई

 ज़िन्दगी महँगी पड़ी थी मौत सस्ती मिल गयी

 ज़िन्दगी तुझ से वफ़ादारी का यह ईनाम है 

झुर्रियाँ चेहरों को बालों को सफ़ेदी मिल गयी

 कोई अब तन्क़ीद करता है तो करने दे उसे

 बे ज़मीरी देख! मुझको लाल बत्ती मिल गयी 

यह अमीरे शह्‌र के दरबार का क़ानून है

 जिसने सजदा कर लिया तोहफ़े में कुर्सी मिल गयी 

मैं इसी मिट्टी से उट्ठा था बगोले की तरह 

और फिर इक दिन इसी मिट्टी में मिट्टी मिल गयी

 मैं इसे ईनाम समझूँ या सज़ा का नाम दूँ 

उँगलियाँ कटते ही तोहफ़े में अँगूठी मिल गयी

 ख़ुदकुशी करने पे आमादा थी नाकामी मेरी

 फिर मुझे दीवार पर चढ़ती यह च्यूँटी मिल गयी

 फिर किसी ने लक्ष्मी देवी को ठोकर मार दी

 आज कूड़े दान में फिर एक बच्ची मिल गयी


काले कपड़े नहीं पहने हैं तो इतना कर ले 

इक ज़रा देर को कमरे में अँधेरा कर ले

 अब मुझे पार उतर जाने दे ऐसा कर ले वर्ना

 जो आये समझ में तेरी दरिया! कर ले 

ख़ुद ब ख़ुद रास्ता दे देगा ये तूफ़ान मुझे 

तुझको पाने का अगर दिल ये इरादा कर ले

 आज का काम तुझे आज ही करना होगा 

कल जो करना है तो फिर आज तक़ाज़ा कर ले 

अब बड़े लोगों से अच्छाई की उम्मीद न कर 

कैसे मुमकिन है करेला कोई मीठा कर ले 

गर कभी रोना ही पड़ जाये तो इतना रोना 

आ के बरसात तेरे सामने तौबा कर ले

 मुद्दतों बाद वह आयेगा हमारे घर में फिर से 

दिल किसी उम्मीद को ज़िन्दा कर ले

 हम सफ़र लैला भी होगी मैं तभी जाऊँगा

 मुझ पे जितने भी सितम करने हों सहरा कर ले


उदास रहने को अच्छा नहीं बताता है 

कोई भी ज़ह्‌र को मीठा नहीं बताता है 

जो जानकार हैं मिट्टी से जान लेते हैं

 शजर किसी से भी शजरा नहीं बताता है 

कल अपने आपको देखा था माँ की आँखों में

 ये आइना हमें बूढ़ा नहीं बताता है 

मोहब्बतों में ज़रूरी है बे वफ़ाई भी 

मगर इसे कोई अच्छा नहीं बताता है 

अमीरे शहर से पूछो कि उसने क्या सोचा

 फ़क़ीर अपना इरादा नहीं बताता है 

लिपट के देखिये इक रोज़ अपने दुश्मन से 

यह तजरुबा कोई अपना नहीं बताता है

 लिपट के रोने दे कुछ देर इस हवेली से

 मैं लौट आऊँगा दरिया नहीं बताता है


आपको चेहरे से भी बीमार होना चाहिए 

इश्क़ है तो इश्क़ का इज़हार होना चाहिए 

आप दरिया हैं तो फिर इस वक़्त हम ख़तरे में हैं 

आप कश्ती हैं तो हमको पार होना चाहिए 

ऐरे-ग़ैरे लोग भी पढ़ने लगे हैं इन दिनों 

आपको औरत नहीं, अख़बार होना चाहिए

 ज़िन्दगी तू कब तलक दर-दर फिरायेगी हमें

 टूटा-फूटा ही सही, घर-बार होना चाहिए

 अपनी यादों से कहो एक दिन की छुट्टी दें मुझे 

इश्क़ के हिस्से में भी इतवार होना चाहिए


मैं उसकी आँखों से छलकी शराब पीता हूँ 

फ़क़ीर हो के भी मँहगी शराब पीता हूँ 

तुझे भी देखूँ तो पहचानने में देर लगे 

कभी-कभी तो मैं इतनी शराब पीता हूँ

 मुझे नशे में बहकने कभी नहीं देता वो

 जानता है मैं कितनी शराब पीता हूँ

 पराये पैसों पे अय्यााशियाँ नहीं की हैं 

मैं जब भी पीता हूँ अपनी शराब पीता हूँ 

पुराने चाहने वालों की याद आने लगे

 इसीलिए मैं पुरानी शराब पीता हूँ



महफ़िल में आज मर्सिया ख़्वानी ही क्यों न हो 

आँखों से बहने दीजिए पानी ही क्यों न हो

 नश्शे का एहतेमाम से रिश्ता नहीं कोई 

पैग़ाम उसका आये ज़बानी ही क्यों न हो

 ऐसे ये ग़म की रात गुज़रना मुहाल है

 कुछ भी सुना मुझे, वो कहानी ही क्यों न हो 

कोई भी साथ देता नहीं उम्र भर यहाँ

 कुछ दिन रहेगी साथ जवानी ही क्यों न हो

 इस तशनगी की क़ैद से जैसे भी हो निकाल

 पीने को कुछ भी चाहिए पानी ही क्यों न हो

 दुनिया भी जैसे ताश के पत्तों का खेल है 

जोकर के साथ रहती है रानी ही क्यों न हो 

तस्वीर उसकी चाहिए हर हाल में मुझे 

पागल हो, सरफिरी हो, दिवानी ही क्यों न हो

 सोना तो यार सोना है चाहे जहाँ रहे

 बीवी है फिर भी बीवी, पुरानी ही क्यों न हो

 अब अपने घर में रहने न देंगे किसी को हम

 दिल से निकाल देंगे निशानी ही क्यों न हो


हवा के रुख़ पे रहने दो ये जलना सीख जायेगा

 कि बच्चा लड़खड़ायेगा तो चलना सीख जायेगा

 वो पहरों बैठ कर तोते से बातें करता रहता है 

चलो अच्छा है अब नज़रें बदलना सीख जायेगा 

इसी उम्मीद पर हमने बदन को कर लिया छलनी

 कि पत्थर खाते-खाते पेड़ फलना सीख जायेगा 

ये दिल बच्चे की सूरत है इसे सीने में रहने दो

 बुरा होगा जो ये घर से निकलना सीख जायेगा

 तुम अपना दिल मेरे सीने में कुछ दिन के लिए रख दो

 यहाँ रह कर ये पत्थर भी पिघलना सीख जायेगा



हिज्र में पहले-पहल रोना बहुत अच्छा लगा

 उम्र कच्ची थी तो फल कच्चा बहुत अच्छा लगा

 मैंने एक मुद्दत से मस्जिद भी नहीं देखी मगर

 एक बच्चे का अज़ाँ देना बहुत अच्छा लगा 

जिस्म पर मेरे बहुत शफ़्फ़ाफ़ कपड़े थे मगर 

धूल मिट्टी में अटा बेटा बहुत अच्छा लगा

 शहर की सड़कें हो चाहे गाँव की पगडण्डियाँ

 माँ की उँगली थाम कर चलना बहुत अच्छा लगा

 तार पर बैठी हुई चिड़ियों को सोता देख कर

 फ़र्श पर सोता हुआ बच्चा अच्छा लगा 

हम तो उसको देखने आये थे इतनी दूर से

 वो समझता था हमें मेला बहुत अच्छा लगा


ख़ुश्क था जो पेड़ उस पर पत्तियाँ अच्छी लगीं 

तेरे होंटों पर लरज़ती सिसकियाँ अच्छी लगीं

 हर सहूलत थी मयस्सर लेकिन इसके बावजूद

 माँ के हाथों की पकाई रोटियाँ अच्छी लगीं 

जिसने आज़ादी के क़िस्से भी सुने हों क़ैद में 

उस परिन्दे को क़फ़स की तीलियाँ अच्छी लगीं 

हाथ उठा कर वक़्ते-रुख़्सत जब दुआएँ उसने दीं 

उसके हाथों की खनकती चूड़ियाँ अच्छी लगीं

 हम बहुत थक-हार कर लौटे थे लेकिन जाने क्यों

 रेंगती, बढ़ती, सरकती चींटियाँ अच्छी लगीं


मुख़्तसर होते हुए भी ज़िन्दगी बढ़ जायेगी

 माँ की आँखें चूम लीजे रौशनी बढ़ जायेगी

 मौत का आना तो तय है मौत आयेगी मगर 

आप के आने से थोड़ी ज़िन्दगी बढ़ जायेगी

 इतनी चाहत से न देखा कीजिए महफ़िल में आप

 शह्‌र वालों से हमारी दुश्मनी बढ़ जायेगी 

आपके हँसने से ख़तरा और भी बढ़ जायेगा

 इस तरह तो और आँखों की नमी बढ़ जायेगी

 बेवफ़ाई खेल का हिस्सा है जाने दे उसे

 तज़किरा उससे न कर शर्मिंन्दगी बढ़ जायेगी


मुसलसल गेसुओं की बरहमी अच्छी नहीं होती

 हवा सबके लिए ये मौसमी अच्छी नहीं होती

 न जाने कब कहाँ पर कोई तुमसे ख़ूँबहा माँगे

 बदन में ख़ून की इतनी कमी अच्छी नहीं होती

 ये हम भी जानते हैं ओढ़ने में लुत्फ़ आता है 

मगर सुनते हैं चादर रेशमी अच्छी नहीं होती 

ग़ज़ल तो फूल-से बच्चों की मीठी मुस्कुराहट है

 ग़ज़ल के साथ इतनी रुस्तमी अच्छी नहीं होती

 मुनव्वर माँ के आगे यूँ कभी खुल कर नहीं रोना 

जहाँ बुनियाद हो, इतनी नमी अच्छी नहीं होती

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