तू हाथ को जब हाथ में ले लेती है
दुख दर्द ज़माने के मिटा देती है
संसार के तपते हुए वीराने में
सुख शांत की गोया तू हरी खेती है
खोते हैं अगर जान तो खो लेने दे
ऐसे में जो हो जाए वो हो लेने दे
एक उम्र पड़ी हैं सब्र भी कर लेंगे
इस वक़्त तो जी भर के रो लेने दे
करते नहीं कुछ तो काम करना क्या आए
जीते-जी जान से गुज़रना क्या आए
रो रो के मौत माँगने वालों को
जीना नहीं आ सका तो मरना क्या आए
पाते जाना है और न खोते जाना
हँसते जाना है और न रोते जाना
अव्वल और आख़िरी पयाम-ए-तहज़ीब
इंसान को इंसान है होते जाना
अमृत वो हलाहल को बना देती है
ग़ुस्से की नज़र फूल खिला देती है
माँ लाडली औलाद को जैसे ताड़े
किस प्यार से प्रेमी को सज़ा देती है
मुखड़ा देखें तो माह-पारे छुप जाएँ
ख़ुर्शीद की आँख के शरारे छुप जाएँ
रह जाना वो मुस्कुरा के तेरा कल रात
जैसे कुछ झिलमिला के तारे छुप जाएँ
ग़ुंचे को नसीम गुदगुदाए जैसे
मुतरिब कोई साज़ छेड़ जाए जैसे
यूँ फूट रही है मुस्कुराहट की किरन
मंदिर में चराग़ झिलमिलाए जैसे
आँखों में वो रस जो पत्ती पत्ती धो जाए
ज़ुल्फ़ों के फ़ुसूँ से मार-ए-सुम्बुल सो जाए
जिस वक़्त तू सैर-ए-गुलिस्ताँ करता हो
हर फूल का रंग और गहरा हो जाए
क़तरे अरक़-ए-जिस्म के मोती की लड़ी
है पैकर-ए-नाज़ कि फूलों की छड़ी
गर्दिश में निगाह है कि बटती है हयात
जन्नत भी है आज उमीदवारों में खड़ी
ऐ रूप की लक्ष्मी ये जल्वों का राग
ये जादू-ए-काम-रूप ये हुस्न की आग
ख़ैर ओ बरकत जहान में तेरे दम से
तेरी कोमल हँसी मोहब्बत का सुहाग
यूँ इश्क़ की आँच खा के रंग और खिले
यूँ सोज़-ए-दरूँ से रू-ए-रंगीं चमके
जैसे कुछ दिन चढ़े गुलिस्तानों में
शबनम सूखे तो गुल का चेहरा निखरे
चढ़ती हुई नद्दी है कि लहराती है
पिघली हुई बिजली है कि बल खाती है
पहलू में लहक के भेंच लेती है वो जब
क्या जाने कहाँ बहा ले जाती है
ये शोला-ए-हुस्न जैसे बजता हो सितार
हर ख़त्त-ए-बदन की लौ में मद्धम झंकार
रंगीन निगाह से खिल उठते हैं चमन
रस होंटों का पी के झूम उठती है बहार
बन-बासियों में जलवा-ए-गुलशन ले कर
तारीकियों में शोला-ए-ऐमन ले कर
वो हँसती हुई रूप की देवी आई
काँटों में खिले फूल सा जौबन ले कर
सहरा में ज़माँ मकाँ के खो जाती हैं
सदियों बेदार रह के सो जाती हैं
अक्सर सोचा किया हूँ ख़ल्वत में 'फ़िराक़'
तहज़ीबें क्यूँ ग़ुरूब हो जाती हैं
हर जल्वे से इक दर्स-ए-नुमू लेता हूँ
लबरेज़ कई जाम-ओ-सुबू लेता हूँ
पड़ती है जब आँख तुझ पर ऐ जान-ए-बहार
संगीत की सरहदों को छू लेता हूँ
अफ़्लाक पे जब परचम-ए-शब लहराया
साक़ी ने भरा साग़र-ए-मह छलकाया
कुछ सोच के कुछ देर तअम्मुल कर के
उस ने भी ज़रा पर्दा-ए-रुख़ सरकाया
जब किरनें हिमालिया की चोटी गूँधें
सोए हुए आबशार आँखें खोलें
जब कंचन नीर सी झलकती हो फ़ज़ा
ऐसे में काश तिरी आहट पाएँ
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